सुप्रीम कोर्ट के मानहानि के मामले में सजा पर रोक लगाने के बाद, राहुल गांधी की लोकसभा में वापसी के लिए, अविश्वास प्रस्ताव पर बहस से उपयुक्त दूसरा मौका नहीं हो सकता था। कहने की जरूरत नहीं है कि राहुल गांधी, अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में यानी विपक्ष की ओर से स्टार-वक्ता होंगे और पिछले सत्र में हिंडनबर्ग रिपोर्ट के बाद, अडानी-मोदी गठजोड़ पर केंद्रित राहुल गांधी के चर्चित लोकसभा भाषण को याद रखें तो, राहुल गांधी के इस बार के भाषण का भी चर्चित होना तय है। यह अनुमान लगाना भी मुश्किल नहीं है कि लोकसभा में अन्य अनेक प्रभावशाली वक्ताओं की भी मौजूदगी के बावजूद, कम से कम मीडिया द्वारा अविश्वास प्रस्ताव की बहस को, ”राहुल बनाम मोदी” टीवी बहस में घटाने पूरी कोशिश की जाएगी। कुल मिलाकर इससे अविश्वास प्रस्ताव की इस बहस में जोरदार तड़का लग जाने की उम्मीद की जा सकती है।
इसके बावजूद, इस बहस का मोदी सरकार के बने रहने के लिहाज से क्या नतीजा होगा, यह तो स्वत: स्पष्ट ही है। उलटे, बीजू जनता दल के अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में मोदी सरकार को अपना समर्थन देने के ऐलान से यह साफ है कि मोदी राज के प्रबंधकों ने इसका भी पूरा इंतजाम कर लिया होगा कि अगर, इंडिया के मंच पर विपक्ष का उल्लेखनीय रूप से बड़ा हिस्सा अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में एकजुट दिखाई दे, तो दूसरी ओर मोदी सरकार के लिए समर्थन, एनडीए की 2019 के चुनाव में आई संख्या से भी कुछ-न-कुछ बढ़कर ही दिखाई दे। इसके सहारे और अन्यथा भी, संघ-भाजपा और मुख्यधारा के मीडिया के गठजोड़ द्वारा अविश्वास प्रस्ताव के गिरने को, मोदी राज के लिए जनता के अनुमोदन, बल्कि उसकी जीत के रूप में प्रचारित करने की हर संभव-असंभव कोशिश की जाएगी। फिर यह अविश्वास प्रस्ताव क्यों?
इस ‘क्यों’ के उत्तर के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। पहले का संबंध यह अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने की तत्कालीन पृष्ठभूमि से है। सभी जानते हैं कि संसद के मानसून सत्र की शुरूआत, मणिपुर के बहुत ही चिंताजनक घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में, विपक्ष द्वारा एकजुट होकर इसकी मांग किए जाने के साथ हुई थी कि सब काम छोड़कर संसद द्वारा इस गंभीर समस्या पर चर्चा की जाए और प्रधानमंत्री के वक्तव्य के आधार पर चर्चा की जाए। प्रधानमंत्री के वक्तव्य के आधार पर चर्चा का आग्रह इसलिए और भी प्रबल था कि ढाई महीने से जारी हिंसा तथा भयावह दरिंदगी और हालात पूरी तरह से शासन के काबू से बाहर बने रहने के बावजूद, प्रधानमंत्री ने इस मामले में पूरी तरह से मौन साधे रहा था। और यह तब था जबकि मणिपुर में यह सब तथाकथित ”डबल इंजन” के राज में हो रहा था, जिसके लिए प्रधानमंत्री की सीधे राजनीतिक ही नहीं, प्रशासनिक जवाबदेही भी बनती थी।
बेशक, तब तक ढाई महीने से मणिपुर में जारी अराजकता तथा इथनिक झड़पों के बीच, लगभग शुरूआत में ही हुई दो कुकी आदिवासी महिलाओं के साथ, हमलावर मैतेई भीड़ की दरिंदगी का वीडियो वाइरल हो गया और देश भर को ही नहीं, दुनिया भर को इसकी झलक दिखाई दी कि इंटरनैट पर प्रतिबंध तथा मीडिया पर नियंत्रण की दीवार के पीछे मणिपुर में क्या कुछ हुआ था और हो रहा था और यह झलक संसद का सत्र शुरू होने से ऐन पहले सामने आ गया। अब प्रधानमंत्री को भी मणिपुर पर अपना मौनव्रत तोड़ना पड़ा।
लेकिन, ढाई महीने बाद भी प्रधानमंत्री मोदी ने मुंह खोला भी, तो क्या बोला? उक्त वाइरल दरिंदगी को प्रधानमंत्री ने देश को शर्मिंदा करने वाला तो कहा, पर डबल इंजन सरकार के सुप्रीमो की हैसियत से अपनी तथा अपने राज की विफलता के लिए शर्मिंदगी के किसी एहसास का लेशमात्र भी उनके बोलने में नहीं था। उलटे, प्रधानमंत्री मोदी ने फौरन मणिपुर की दरिंदगी को, छांटकर विपक्ष शासित राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की समान रूप से क्रूर, किंतु सामान्य अपराध की घटनाओं के साथ, जोड़कर बराबरी पर रख दिया, ताकि मणिपुर की बर्बादी के लिए किसी भी जिम्मेदारी से खुद को और अपने डबल इंजन राज को बचा सकें। दूसरी ओर, प्रधानमंत्री ने न सिर्फ मणिपुर के पूरे घटना विकास पर अपना मौन फिर भी बनाए रखा, बल्कि उन्होंने मणिपुर की जनता से शांति की अपील करना और सभी समुदायों को तथा विशेष रूप से अल्पसंख्यकों को उनकी हिफाजत का भरोसा दिलाना तक मंजूर नहीं किया। और प्रधानमंत्री ने यह बयान भी संसद के अंदर नहीं दिया, जहां इस पर कम-से-कम चर्चा की गुंजाइश होती। प्रधानमंत्री ने यह बयान दिया, संसद का सत्र शुरू होने से ऐन पहले, पर संसद से बाहर, उसके दरवाजे पर।
इसी सब की पृष्ठभूमि में जब यह साफ हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी, मणिपुर के मुद्दे पर संसद में सामान्य रूप से कुछ नहीं बोलेंगे, तब विपक्ष को अविश्वास प्रस्ताव के संसदीय अस्त्र का सहारा लेना पड़ा। जाहिर है कि प्रधानमंत्री को अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के अपने जवाब में तो, इस पूरे मामले में जिम्मेदारी के सवाल पर बोलना ही बोलना था। दूसरे शब्दों में, जब मणिपुर जैसी गंभीर चुनौती के संदर्भ में वर्तमान सरकार से सवालों के जवाब हासिल करने के दूसरे सामान्य जनतांत्रिक रास्ते बंद कर दिए गए, तब सरकार से जवाब मांगने के अंतिम संसदीय अस्त्र, अविश्वास प्रस्ताव का विपक्ष को सहारा लेना पड़ा। इन सूरते हाल में संसद के सम्मुख सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अविश्वास प्रस्ताव का सहारा लेना, विपक्ष का सिर्फ अधिकार ही नहीं था, बल्कि उसकी जिम्मेदारी भी थी।
स्वाभाविक रूप से यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या यह सिर्फ प्रधानमंत्री के ईगो का मामला है कि वह संसद में अविश्वास प्रस्ताव या राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के सिवा, मणिपुर के हालात जैसे किसी अत्यधिक गंभीर मसले पर भी, जिस पर उनके राज पर सवाल उठ सकते हों, बोलेंगे ही नहीं? या यह मणिपुर की वर्तमान समस्या को बहुत ज्यादा महत्व न देने का मामला है? बेशक, सच्चाई एक हद तक इन दोनों ही अनुमानों में है, फिर भी सबसे बढ़कर यह वर्तमान निजाम के संसदीय व्यवस्था के सार को ही अस्वीकार करने का मामला है। संसदीय व्यवस्था का सार क्या है? क्या संसदीय व्यवस्था का सार सिर्फ चुनाव है? तब निर्वाचित के निरंकुश शासन और संसदीय जनतंत्र में फर्क ही क्या रह जाएगा?
संसदीय जनतंत्र का सार है, कार्यपालिका की संसद के माध्यम से, जनता के सामने जवाबदेही। प्रधानमंत्री बेशक, संसदीय बहुमत के समर्थन के बल पर कार्यपालिका के शीर्ष पर होता है, लेकिन यह बहुमत भी संसद के समक्ष उसकी जवाबदेही का स्थानापन्न नहीं हो सकता है। संभवत: इसीलिए, यह कहा जाता है कि संसद विपक्ष की होती है क्योंकि उसके जरिए ही विपक्ष, उसकी करनियों-अकरनियों के लिए, कार्यपालिका की और जाहिर है कि इसमें कार्यपालिका के प्रमुख के रूप में प्रधानमंत्री भी आ जाते हैं, जवाबदेही सुनिश्चित करता है। यह जवाबदेही संसदीय जनतंत्र का रोजाना का तकाजा है, जो पांच साल या ऐसी ही किसी अवधि पर होने वाले चुनावों में, किसी तरह जनता का ”आशीर्वाद” हासिल कर लेने से पूरा नहीं हो सकता है।
प्रधानमंत्री मोदी और जाहिर है कि उनके भक्तगण भी, जिस सुर उन्हें चुनाव में बहुमत मिला होने को कुछ भी करने या नहीं करने के लिए वैधता के सर्वोच्च तथा सर्वव्यापी तर्क के रूप में पेश करते नहीं थकते हैं, उससे जाहिर है कि वे प्रधानमंत्री के पद को पांच साल के निरंकुश राज के पट्टे की तरह देखते हैं और संसद के प्रति कार्यपालिका की रोज-रोज की जवाबदेही की व्यवस्था को, एक अनुपयोगी बोझ ही मानते हैं। हैरानी की बात नहीं है कि वर्ष दर वर्ष और सत्र दर सत्र, संसद की बैठकों की संख्या मोदी के राज के नौ वर्षों में कम से कम ही होती चली गई है। वास्तव में यह रुझान, गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के बारह साल के कार्यकाल में भी दर्ज किया गया था।
इसी का हिस्सा है कि मोदी के राज में संसद का चलना सुनिश्चित करने की, सत्तापक्ष की कोई कोशिश ही नहीं होती है, फिर इसके लिए विपक्ष की किसी मांग को एकोमोडेट करने का तो सवाल ही कहां उठता है। अब तो खैर संसद के साथ पराएपन के इस सलूक को उस मुकाम पर पहुंचा दिया गया है, जहां न सिर्फ संसद में बिना किसी बहस के शोर-शराबे के बीच विधायी काम निपटाने की खानापूरी करना ही सत्तापक्ष को ज्यादा सुविधाजनक नजर आता है, बल्कि अब तो संसद को ठप्प करने का जिम्मा भी ज्यादा से ज्यादा सत्ता पक्ष ही संभाल रहा है।
फर्क सिर्फ इतना है कि जहां बजट सत्र के उत्तरार्द्घ में सत्तापक्ष ने ”राहुल गांधी की माफी” की मांग के सहारे संसद को ठप्प किया था, वर्तमान सत्र में यही काम उसने अपनी इस जिद से किया है कि मणिपुर भले ही जलता रहे, प्रधानमंत्री संसद में उसके संबंध में सवालों का जवाब नहीं देंगे। ऐसे में विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से, सिर्फ मणिपुर के मामले में सरकार से जवाब मांगा जाना ही सुनिश्चित नहीं किया है, आम तौर पर संसद के सामने सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के हमारी संवैधानिक व्यवस्था के सार को भी एसर्ट किया है। कहने की जरूरत नहीं है कि मौजूदा निजाम में संवैधानिक व्यवस्था के इस सार को उभारे जाने की भारी जरूरत है।
दूसरे, अविश्वास प्रस्ताव में गिनती का नतीजा भले ही मोदीशाही के पक्ष में रहना पहले ही तय हो, पर कुल-मिलाकर यह कसरत सत्तापक्ष को भारी ही पड़ने जा रही है। फिर दुहरा दें कि यह राहुल बनाम मोदी बहस में भारी पड़ने, न पड़ने का ही मामला नहीं होगा। इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि नौ साल में पहली बार, इतने बड़े पैमाने पर एकजुट विपक्ष, मोदीशाही के मुकाबला करने के लिए मैदान में उतरेगा। इस लड़ाई से एक-एक मोर्चे पर कामयाबी से विपक्ष जो आत्मविश्वास अर्जित करेगा, वह इस साल के आखिर में होने वाले महत्वपूर्ण विधानसभाई चुनावों के लिए और फिर 2024 के पूर्वार्द्घ में जनादेश के लिए देशव्यापी युद्घ के लिए, विपक्ष के लिए जरूरी प्रैक्टिस का रास्ता बनाएगा। अविश्वास-प्रस्ताव की तयशुदा हार भी, 2024 में मोदीशाही की संभावित हार को ही नजदीक लाएगी।
(लेखक राजेन्द्र शर्मा जी वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)