लघु कथा; अपना-पराया दुःख दर्द समझने की

राजस्थान से राजू चारण ✍

“पता नहीं ये सामने वाला शंकर सेठ हफ्ते में 3-4 बार अपनी चप्पल कैसे तोड़ आता है? गर्मियों की चालीस पचास डिग्री सेल्सियस में एक छतरी के नीचे बैठा” मोची या फिर सांसी बुदबुदाया, नजर सामने की बड़ी किराना दूकान पर बैठे मोटे शंकर सेठ पर थी। जो लाक डाउन में ग्यारह बजे तक अपनी दुकान पर लोगों को सामान बेचा करता था।

हर बार जब उस मोची के पास कोई काम ना होता तो शंकर सेठ का नौकर सेठजी की टूटी हुई चप्पल बनाने को दे जाता।

मोची अपनी पूरी लगन से वो चप्पल सी देता की अब तो 2-3 महीने तक चप्पल नहीं टूटने वाली।

शंकर सेठ का नौकर आता और बिना मोलभाव किये पैसे देकर उस मोची से चप्पल ले जाता।

पर 2-3 दिन बाद फिर वही चप्पल टूटी हुई उस मोची के पास वापस पहुंच जाती।

आज फिर सुबह हुई, फिर सूरज निकला। शंकर सेठ का नौकर दूकान की झाड़ू लगा रहा था।

और शंकर सेठ……..अपनी चप्पल तोड़ने में लगा था ,पूरी मश्शकत के बाद जब चप्पल न टूटी तो उसने धनजी नौकर को आवाज लगाई।

“अरे धनजी इसका कुछ कर, ये मंगू भी पता नहीं कौन से धागे से चप्पल सीलता है, टूटती ही नहीं।”

धनजी ओर महाराज मिलकर आज सारी गांठे खोल लेना चाहता था ” शंकर सेठजी मुझे तो आपका ये हर बार का नाटक समझ में नहीं आता। खुद ही चप्पल को तोड़ते हो फिर खुद ही जुडवाने के लिए उस मंगू के पास हमारे को भेज देते हो।”

शंकर सेठ को चप्पल तोड़ने में सफलता मिल चुकी थी। उसने टूटी चप्पल धनजी को थमाई और रहस्य की परते खोली… “देख भाई धनजी जिस दिन मंगू के पास कोई ग्राहक नहीं आता उस दिन ही मैं अपनी चप्पल तोड़ता हूं…क्योंकि मुझे पता है… मंगू गरीब है… पर स्वाभिमानी है, मेरे इस नाटक से अगर उसका स्वाभिमान और मेरी मदद दोनों शर्मिंदा होने से बच जाते है तो इसमें क्या बुरा है….??”

आसमान साफ था पर धनजी ओर महाराज की आँखों के बादल बरसने को बेक़रार थे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *