सरकार के दिशानिर्देशों का ध्यान रखते हुए, सादगी से मनाए मोहर्रम का ग़म: हसन जाज़िब आब्दी

लखीमपुर खीरी- इंडियन शिया यूथ वेलफ़ेयर सोसाइटी रजि० के ज़िलाध्यक्ष एस. हसन जाज़िब आब्दी में मोहर्रम में मजलिसों के एहतेमाम को ले कर सादगी और सरकार द्वारा जारी दिशानिर्देशों के साथ इस ग़म की याद को ताज़ा रखने की क्षेत्रवासियों से अपील की, आब्दी ने कहा कि अपने घरों में ही सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए अपने प्रोग्राम्स करे और कोविड-19 के इस दौर में सरकार का सहयोग करे, हमारा मक़सद किसी को तक़लीफ़ देना नही बल्कि अपने ग़म को ज़ाहिर करना है, मोहर्रम कोई त्येवहार नही बल्कि मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन अ. स. के द्वारा आजसे 1442 साल पहले कर्बला के मैदान में ज़ुल्म और आतंकवाद के ख़िलाफ़ उठाई गई आवाज़ है जिसमे वो यज़ीद नामक दुनिया के पहले आतंकवादी के आगे सर न झुकाते हुए शहीद हो गए थे, मोहर्रम इमाम हुसैन और उनके अपने 72 साथियों के द्वारा दी गयी शहादत की एक ग़मगीन शहादत की यादगार है हज़रत इमाम हुसैन के शहादत की अनोखी मिसाल है मुहर्रम, जानिए इसका इतिहास, मोहर्रम ज़ुल्म और आतंकवाद के ख़िलाफ़ जंग का नाम है, पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार मुहर्रम हिजरी संवत का प्रथम मास है। मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्योहार है। इस माह की उनके लिए बहुत विशेषता और महत्ता है।
मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन के शोक में मनाए जाते हैं। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब, मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।
इतिहास- कर्बला यानी आज का सीरिया जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा। वह अपने वर्चस्व को पूरे अरब में फैलाना चाहता था जिसके लिए उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती थीभल पैगम्बर मुहम्मद के खानदान का इकलौता चिराग इमाम हुसैन जो किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।
इस वजह से सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार बढ़ने लगे। ऐसे में वहां के बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे पर रास्ते में यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान पर इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया।
वह 2 मुहर्रम का दिन था, जब हुसैन का काफिला कर्बला के तपते रेगिस्तान पर रुका। वहां पानी का एकमात्र स्त्रोत फरात नदी थी, जिस पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से हुसैन के काफिले पर पानी के लिए रोक लगा दी थी। बावजूद इसके इमाम हुसैन नहीं झुके। यजीद के प्रतिनिधियों की इमाम हुसैन को झुकाने की हर कोशिश नाकाम होती रही और आखिर में युद्ध का ऐलान हो गया।
इतिहास कहता है कि यजीद की 80000 की फौज के सामने हुसैन के 72 बहादुरों ने जिस तरह जंग की, उसकी मिसाल खुद दुश्मन फौज के सिपाही एक-दूसरे को देने लगे। लेकिन हुसैन कहां जंग जीतने आए थे, वह तो अपने आपको अल्लाह की राह में त्यागने आए थे। उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार, उच्च विचार, अध्यात्म और अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत में प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब पर विजय प्राप्त कर ली। दसवें मुहर्रम के दिन तक हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफनाते रहे और आखिर में खुद अकेले युद्ध किया फिर भी दुश्मन उन्हें मार नहीं सका। आखिर में अस्र की नमाज के वक्त जब इमाम हुसैन खुदा का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी को लगा की शायद यही सही मौका है हुसैन को मारने का। फिर, उसने धोखे से हुसैन को शहीद कर दिया। लेकिन इमाम हुसैन तो मर कर भी जिंदा रहे और हमेशा के लिए अमर हो गए। पर यजीद तो जीत कर भी हार गया। उसके बाद अरब में क्रांति आई, हर रूह कांप उठी और हर आंखों से आंसू निकल आए और इस्लाम गालिब हुआ।

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