राजस्थान/बाड़मेर- सरकार को छोटे पसंद नहीं है। वे छोटे लोग है ,वे झोला छाप है। सरकार बड़ो पर मेहरबान है। फिर चाहे वे बड़े लोग हो ,बड़ी इंडस्ट्री हो या बड़े अख़बार। हालांकि गाँधी ने किसी भी फैसले से पहले उस इंसान का चेहरा जेहन में रखने की सीख दी थी जो समाज में आखिरी कतार में खड़ा हो। मगर अब छोटे चेहरों पर मायूसी है ,बड़े चेहरों पर मुस्कान का बसेरा। फिर चाहे छोटे दुकानदार हो ,किसान हो ,इंडस्ट्री हो या छोटी आबादी। छोटे और मध्यम समाचार पत्रों के सम्म्मेलन में शिरकत के दौरान उनके दुःख दर्द को निकट से जानने का मौका मिला।
अख़बार छोटे है ,मालिक भी छोटे है। पर लड़ाई बड़ी लड़ते है। हरियाणा का ‘पूरा सच ‘छोटा अख़बार है।इसके सम्पादक रामचंद्र छत्रपति वो अकेले पत्रकार है जिन्होंने सबसे पहले एक बाबा के खिलाफ फरियाद लेकर घूमती एक पीड़िता की चिठ्ठी अपने अख़बार में छापी। छत्रपति को इस खबर के लिए अपनी जान का नजराना पेश करना पड़ा।उनकी है उनकी हत्या कर दी गई। वहां अखबारों के बड़े बड़े ब्रांड थे।टी वी चैनल भी।पर किसी ने उस चिठ्ठी को तवज्जो नहीं दी।
पूरा सच के साथ दो और छोटे अख़बार थे। उन पर भी हमले हुए।
भारत में ऐसे अनेक छोटे अख़बार है जो अपने अपने क्षेत्र में दुःख अभावो के बीच अख़बार निकाल रहे है। इनमे चित्रकूट का खबर लहरिया भी है।इस अख़बार की बहुत सराहना की जाती है। यह भी सच है कि कुछ अपने अख़बार का गलत इस्तेमाल करते है।पर उनका क्या ? नजला हमेशा पात्र किरदारों पर गिरता है।
सरकार ने कुछ वक्त पहले नई विज्ञापन नीति बनाई। इसमें बड़ो के रास्ता चौड़ा हो गया ,छोटे अखबारों के लिए गली और भी सिकुड़ गई। इस नीति का उस अख़बार के प्रबंधक ने स्वागत किया जिसने पिछले साल अपनी कमाई नो हजार करोड़ से ज्यादा बताई है। कहा ‘अब जो बड़े है और अच्छे है ,उन्हें हक़ मिल सकेगा। बड़े अख़बारो की एक प्रति चार रूपये में मिल जाती है। जबकि अख़बार की वास्तविक कीमत 14 से बीस रूपये तक है। क्या घाटा खाकर आपकी सेवा कर रहे है ? नहीं बाकि पैसा बाजार देता है। इसलिए वे बाजार का पूरा ख्याल रखते है।
छोटे अखबारों को बाजार नहीं नवाजता।क्योंकि बाजार सिर्फ नफे की बात करता है। लेकिन सरकार तो नफे मुनाफे की भाषा में बात नहीं कर सकती। क्योंकि सविंधान कहता है भारत एक जनकल्याणकारी राज्य है। मगर सरकार को आप रोक नहीं सकते।
ग्रामीण भारत की आबादी 833 मिलियन है। वहां 784 भाषाएँ बोली जाती है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का आकलन है देश के छह प्रमुख अखबारों के पहले पन्ने पर ग्रामीण भारत को 0 .18 प्रतिशत स्थान मिला। यही हाल प्राइम टाइम का है। सवाल यह भी है इन लोगो को स्थान क्यों दे ? मिलता क्या है ? मगर अब छोटे अखबारों की भी साँसे फूल रही है।
उन आँखों को बहुत तलब थी
पर कालिख काजल नहीं होता
उस धरती को असीम प्यास थी
पर धुआं बादल नहीं होता
दरिया में तैरता तिनका पतवार नहीं होता
छपते तो बहुत है, हर कागज अख़बार नहीं होता।
– राजस्थान से राजूचारण