बरेली। पंचमहाभूत और संधारणीय विकास नामक शीर्षक से युक्त यह पुस्तक प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली पर आधारित है, जोकि विद्यानिधि प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई है और इसका लेखन डॉ. योगेन्द्र भारद्वाज और डॉ. हरिराम मिश्र ने किया है। इस पुस्तक का केन्द्रीय बिन्दु पंचमहाभूत (पृथिवी, जल अग्नि, वायु और आकाश) हैं। जिसकी आधारभूत भारतीय ज्ञान परम्परा की मूल संकल्पना “यत्पिण्डे तत्ब्रह्माण्डे” विद्यमान है, क्योंकि जिन पांच तत्त्वों से यह शरीर बना है। उन्हीं से यह विश्व भी बना हुआ है। जैसाकि तुलसीदास ने भी कहा है– “क्षिति जल पावन गगन समीरा । पंचरचित यह अधम शरीरा ॥” इस पुस्तक के प्रारम्भ मे भारतीय चिन्तन परम्परा में वर्णित पांचों तत्त्वों का भली-भांति विवेचन किया है और उसके बाद उनके असन्तुलन विकास क्रम और कहानी को बतलाया गया है। हम सभी जानते हैं कि वर्तमान समय में तापमान में उच्चता-गिरावट जलवायु परिवर्तन की समस्या सम्बन्धित है और इसके केन्द्र में अग्नि, जल आदि पांच तत्त्वों का असन्तुलन है। प्रत्येक महाभूत से जनित देशीय व वैश्विक चुनौतियों, जैसे – ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, जनसंख्या वृद्धि, वनाग्नि, मानव-पशु संघर्ष, समुद्र के स्तर में वृद्धि, ग्लेशियर पिघलना, अचानक परिवर्तित मौसम, शहरों का ऊष्मा द्वीप बन जाना आदि से भी यह पुस्तक रूबरू कराती है और इसीलिए लेखक ने प्रत्येक असन्तुलित महाभूत और उसके सन्तुलन हेतु एक रोडमैप इस पुस्तक मे बताया गया है। इसके साथ ही दिल्ली, शंघाई, केपटाउन, इंडोनेशिया, शिमला, मुम्बई का बर्सोवा बीच, असम का माजुली द्वीप जैसे स्थानों की केस-स्टडी भी इस पुस्तक को विशिष्ट बनाता है। इन महाभूतों को सन्तुलित करने में राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय (सरकारी और गैर-सरकारी) प्रयासों और उनसे संधारणीय विकास की प्राप्ति को यह पुस्तक रेखांकित करती है। प्रत्येक महाभूत के द्वारा किन संधारणीय विकास लक्ष्यों की पूर्त्ति होती है। इसकी विशद चर्चा की गई है, जैसे – अग्नितत्त्व के सन्तुलन से संधारणीय विकास लक्ष्य सं. 7, 9, 15, 16 व 17 को प्राप्त किया जा सकता है। अन्ततः यह कहा जा सकता है कि बेहद सरल व संयमित भाषा और उच्चस्तरीय शोध के माध्यम से दोनों लेखकों ने वर्तमानकालिक असन्तुलित पंचमहाभूतों के सन्तुलन और जलवायु परिवर्तन की भावी दिशा-दशा को सहज रूप से सफलतया रेखांकित किया है।।
बरेली से कपिल यादव